[स्वतंत्रता दिवस पर विशेष]
हम शिकायत करते हैं कि स्वतंत्रता के इतने वर्षो बाद भी हमें देश ने
कुछ नहीं दिया, लेकिन यह नहीं सोचते कि हमने देश को क्या दिया। यदि सभी लोग
याचना छोड़कर देश के प्रति अपने कर्तव्य निभाएं, तो देश की उन्नति को कोई
रोक नहीं सकता..
अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जे.एफ. कैनेडी ने कहा था- 'यह मत सोचो
कि देश आपको क्या देता है, बल्कि यह सोचो कि देश को आपने क्या दिया है..'।
बात स्लोगनों की नहीं है, बात नारों की नहीं है, बात विचार की है। विचार यह
कि क्या मैं देश के सामने याचक बन कर आता हूं या देश के लिए कुछ करने की
इच्छा से जीता हूं?
आमतौर पर हम देश से अपेक्षाएं रखते हैं, स्वतंत्रता से अपेक्षाएं रखते
हैं, लेकिन खुद से कोई अपेक्षा नहीं रखते। यह जानते हुए भी कि हमसे ही बनता
है देश। हम हमेशा शिकायत करते रहते हैं कि स्वतंत्रता के इतने सालों बाद
भी हमें यह नहीं मिला, हमें वह नहीं मिला, लेकिन हम यह नहीं देखते कि हमने
देश को क्या दिया। यदि उन लोगों की बात को सही भी मान लें कि देश गर्त में
जा रहा है, तो क्या उसके जिम्मेदार हम नहीं हैं? हम देश के लिए कुछ नहीं
करते, उसकी आर्थिक, सांस्कृतिक समृद्धि में कोई योगदान नहीं करते और देश से
अपेक्षा करते रहते हैं कि वह हमारे लिए करे। हमसे ही देश बनता है। हमारे
कार्यो से ही वह प्रगति के रास्ते पर जाएगा।
स्वतंत्रता दिवस के समय जरूर हम लोगों में देश के प्रति देशभक्ति उजागर
होने लगती है। रेडियो, टेलीविजन में देशभक्ति के गाने हमें कुछ समय के लिए
अपने कर्तव्यों के लिए प्रोत्साहित करते हैं। परंतु कुछ समय बाद हमारा मन
भी और चीजों में उलझ जाता है।
दरअसल, व्यक्ति पांच स्तरों पर जीता है। आर्थिक, शारीरिक, मानसिक,
बौद्धिक तथा आध्यात्मिक स्तरों पर। हर स्तर में देश की एक प्रमुख भूमिका
होती है। हम सब पर देश का उधार है। देश ने हमारी झोली में इतना कुछ दिया
है, फिर भी हम देश के सामने भीख का कटोरा लेकर खड़े रहते हैं। अंग्रेजी में
एक कहावत है, जैसा आप सोचते हैं, वैसे ही हो जाएंगे अर्थात आपकी सोच ही
आपको बनाती है। अपने आसपास देखिए। अधिकतर लोग आपको याचक बने नजर आएंगे।
मां-बाप बच्चों के सामने बैठे हैं कि मेरी झोली में सम्मान डाल दो।
कर्मचारी मालिक के सामने याचक बना बैठा है कि मुझे प्रमोशन दे दो। मालिक
सरकार के सामने याचक बना बैठा है कि हमें टैक्स में छूट दे दो।
हमें सोच को व्यापक बनाना चाहिए। छोटा सोचेंगे तो हम छोटे ही रह
जाएंगे। हमारे मन में देने का भाव हो न कि लेने का। देश को जब हम देते हैं,
उसी का प्रतिफल देश हमें देता है, इसे याद रखें। जैसे ही हमारे अंदर देने
का भाव पैदा होता है, अपने आप हम दाता के रूप में स्थापित हो जाते हैं,
वहीं जब मन में लेने का भाव होता है, तो हम याचक बन जाते हैं। स्वामी
रामतीर्थ जी ने एक नियम बताया था, 'द वे टु गेन एनीथिंग इज टु लूज इट'
अर्थात कोई भी चीज प्राप्त करना चाहते हो तो उसको देना शुरू कर दो। यदि आप
ज्ञान चाहते हो, तो ज्ञान देना शुरू कर दो। जितना ज्ञान आप लोगों को दोगे,
उतना आपका ज्ञान बढ़ेगा। यदि आप चाहते हैं कि आपको सम्मान मिले तो अन्य
लोगों को सम्मान देना शुरू कर दीजिए। यदि आप सेवा चाहते हैं तो दूसरों की
सेवा शुरू कर दीजिए।
परिवार, समाज और ईश्वर तक तो यह बात हमें शायद समझ में आ जाए, परंतु जब
देश की बात होती है तो हम सब लोगों में अधिकतर लूटने, हड़पने, छीनने का
विचार आ जाता है। हम अपने काम से दूसरे शहर जाते हैं, तो एक-एक पैसा संभाल
कर खर्च करते हैं, परंतु कभी सरकारी खर्च पर कहीं जाने का अवसर मिल गया, तो
अनाप-शनाप खर्च करने लगते हैं। आमतौर पर लोग कहते हैं, 'सब चोरी करते हैं
तो हम क्यों न करें'। यह तो वही बात हुई कि सब कुएं में कूद रहे हैं तो हम
क्यों न कूदें।
यह मानकर चलें कि ईश्वर परमपिता है, यानी वह सबका पिता है। कोई भी पिता
नहींचाहता कि उसके पुत्र लोगों से याचना करें। हम सब 'अमृतस्य पुत्रम'
हैं। सारे संसार के सामने याचक बने भीख का कटोरा लिए बैठे हैं। ईश्वर सोचते
होंगे, 'मैंने मनुष्य को कर्तव्य करने के लिए बनाया था और यह तो याचक बन
गया।'
देशभक्ति का भाव किसी अवसर का मोहताज नहीं होता, यह हमारे भीतर का
स्थायी भाव होना चाहिए। देशभक्ति का मतलब देश से अपेक्षा करना नहीं, बल्कि
देश के लिए कुछ करने की प्रवृत्ति पैदा होना है।
[आचार्य शिवेंद्र नागर]